21/08/2025

Dhanbad Times

“स्वस्थ लोकतंत्र की धुरी: चुनाव आयोग की भूमिका” आलेख ✍️ बिजय कुमार झा, समाजसेवी

एप से शेयर हेतु अंतिम बटन से लिंक कॉपी करे
50 Views

चुनाव केवल सत्ता परिवर्तन का माध्यम नहीं है—यह जनविश्वास, पारदर्शिता और प्रतिनिधित्व की आत्मा है। टी एन शेषन जैसे चुनाव आयुक्तों ने जो मिसाल कायम की थी, क्या आज की व्यवस्था उस मानक को बरकरार रख पा रही है? बिहार चुनाव में पहचान पत्रों की सूची से आधार और पैन जैसे दस्तावेज़ हटाना… क्या यह समावेशी लोकतंत्र की ओर संकेत करता है या उसके विपरीत?

अब वक्त है सोचने का—

क्या हम अपने लोकतंत्र को सजग, मजबूत और भेदभाव रहित बनाए रखने में चुनाव आयोग की भूमिका को पुनः आत्मा की तरह देख पा रहे हैं? स्वतंत्रता के बाद वर्ष 1952 में जब पहला आम चुनाव हुआ, तब चुनाव आयोग की पहचान और उसके आदेशों पर जनमानस का अधिक ध्यान नहीं था। लेकिन समय के साथ इसकी शक्ति और महत्व को समझा गया, विशेषकर जब श्री टी.एन. शेषन ने चुनाव आयुक्त का पद संभाला। शेषन ने नॉमिनेशन प्रक्रिया में क्रांतिकारी सुधार लाकर प्रत्याशियों की शैक्षणिक योग्यता, आपराधिक पृष्ठभूमि और संपत्ति विवरण को अनिवार्य बनाया। इस कदम से मतदाताओं को प्रत्याशियों के चरित्र और योग्यता की स्पष्ट जानकारी मिली और लोकतांत्रिक प्रक्रिया में पारदर्शिता का एक नया अध्याय जुड़ा। उन्होंने मतदान केंद्रों की संख्या बढ़ाने के लिए भी जनसंख्या अनुपात में परिवर्तन किया — एक बूथ पर अधिकतम 800 मतदाता का प्रावधान किया गया जिससे भागीदारी और मतदान प्रतिशत बढ़ा। इन प्रयासों को पूरे देश ने सराहा।
बिहार विधानसभा चुनाव से पहले पहचान पत्रों को सीमित करने का निर्णय — जिसमें आधार, राशन कार्ड, पैन कार्ड को स्वीकार नहीं किया गया — आम मतदाता के लिए चुनौतीपूर्ण सिद्ध हो रहा है। पहचान साबित करने की प्रक्रिया यदि कठिन की जाती है, तो लोकतंत्र की समावेशिता प्रभावित हो सकती है। सुप्रीम कोर्ट द्वारा एक न्यायाधीश, सत्ता पक्ष और विपक्षी नेता के संयुक्त निर्णय से चुनाव आयुक्त की नियुक्ति का निर्देश दिया गया था, जिसने नियुक्ति प्रक्रिया में संतुलन और विश्वसनीयता दी। किंतु इस व्यवस्था को पलटकर केवल केंद्र सरकार को यह अधिकार देना सवालों के घेरे में है।

 

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

error: Content is protected !!